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Sunday, 22 November 2015

पगली

इक बात थी जो कहनी थी कयी महीनों से ख़ुद को
पर झिझक थी, घबराहट थी, और शक था खुदी पे
तमन्ना थी, सपने थे और डर था हारने का
इक आहट सी हुई थी इसी मन के कोने में
कई बार समझाया ख़ुदी ने खुद ही को
ये भ्रम है तेरे मन का कोई आहट नहीं है पगली!
इक दिल था खुदी का जो रोकता था ख़ुद से
कभी भ्रम कभी डर कभी कहता था पगली
वही बात थी बस जो कहनी थी ख़ुद से
ख़्वाब देखने के लिए मैं पगली ही सही

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